जिंदगी भागती जाती है
और हम वहीं ठहरे रहते हैं
अपने-अपने मकानों के
दीवारों के बीच,
अपनों कपड़ों के बीच
उनके रंग का क्षीण होना
हमें तब तक नहीं दिखाई पड़ता
जब तक हमारी आंखें
अनंत के विस्तार को झांखने
हमसे दूर नहीं चली जातीं,
हमारा रूपया हमारे ही चिता
को जलाने के काम आएगा
और हमने जाने-अनजाने
जो खिंचवाईं हैं तस्वीरें
उनमें से जो उन्हें पसंद आएंगी
केवल वही दीवार पर टांगी जाएंगी,
हम यह नहीं समझ पाते
जानते हुए भी कि
उम्र भर हमारे जाने का प्रयोजन
सिर्फ इसलिए बना रहता है
क्योंकि हम जानते नहीं
कि जाना किसे कहते हैं।
(अप्रमेय)
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