तुम्हें जिस तरह मुझसे
प्रेम मिलना चाहिए
वह नहीं दे पाता,
मैं सोचता हूँ कि मैं
कितना अभागा हूँ,
मैं इस सत्य को नकार जाता हूँ
और इससे बच सकूं इसके लिए
अपने चित्त को ऊंचा उठाने
की फिक्र में लग जाता हूँ,
ईश्वर के अलावा कोई सहारा नहीं दिखता!
मैं उसकी शरण में चला जाता हूँ
और एक बार फिर तुम्हें
प्रेम करने से चूक जाता हूँ।
(अप्रमेय)
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