कुछ कहने चलता हूँ
चुप्पी छा जाती है
गीत गाने उठता हूँ
आंख भर आती है,
रास्तों पर चलते हुए
घर की याद आती है
बिस्तरे पर लेटे हुए
जिंदगी सताती है,
इस शहर से उस शहर
रात कुछ बसर हुई
गांव से क्या निकले हम
फिर कभी न सहर हुई,
कोई पैमाना नहीं यह
बस दिल्लगी समझना
गजल हुई न हुई
कोई फर्क नहीं, कोई फर्क नहीं!
(अप्रमेय)
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