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Friday, September 18, 2020

गजल

कुछ कहने चलता हूँ
चुप्पी छा जाती है
गीत गाने उठता हूँ
आंख भर आती है,

रास्तों पर चलते हुए
घर की याद आती है
बिस्तरे पर लेटे हुए
जिंदगी सताती है,

इस शहर से उस शहर
रात कुछ बसर हुई
गांव से क्या निकले हम
फिर कभी न सहर हुई,

कोई पैमाना नहीं यह
बस दिल्लगी समझना
गजल हुई न हुई 
कोई फर्क नहीं, कोई फर्क नहीं!
(अप्रमेय)

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