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Sunday, October 20, 2013

बेलवहीँ

उम्र बिताया
सामने वहां
दिख पड़ता है कुआँ
जिसके मुखाने अगल-बगल
उगी रहती है छुई-मुई,
सबकी आस्था बटोरे
धूप-छाँव ,बरसात
और आसमान को ताकते
बराबर चौकी लगाये
तगद के पेड़ के नीचे
पहरा देते रहते हैं
वहां बरम-बाबा,
कोई भी जाये
वहां से खाली हाथ नहीं लौटता
नौजवान हो तो छिम्मी
औरत हो तो अमरुद
बूढ़े हो तो बेल
बच्चा हो तो कहीं न कहीं से
निकल ही जाता है
उसके लिए
कोई न कोई लरिकासन,
अजब खुटियाये बाल
सर्दियों में पैरों में झुलसे
वहां जीवित रहने की
कथा सुना जाते हैं,
रह-रह कर उठती बैठती सी
घुल ही जाती है
वहां कोई सोंधी महक,
सुनाई पड़ ही जाता है
वहां गोधरी बेला में
झिगरों का सामगान
जिसे ताल देती रहती है
आंटे की पुक-पुक मशीन,
वहां जीवित हैं
दिल के ताखे पर
भोग लगाये-बिठाये
ठाकुर बाबा,
ओसारे वहां कभी खाली
नहीं पड़ा रहता बिड़वा
और इन सब के बावजूद
मैं कहीं भी रहूँ
मेरे ह्रदय में
जलती रहती है
इतने बल्बों के बीच
बुढ़िया के मड़ई की
वह ढेबरी
जी है यही है
मेरा प्यारा गाँव
बेलवहीँ
(अप्रमेय )  









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