नैनीताल
आतें हैं जाते हैं
इन पहाड़ो को देख
क्या वे कभी समझ पाते हैं
यह जो ताल है
पहाड़ो के बीच
संकेत देते हैं तुम्हे
तुम ऐसे बनो जैसे
बाहर से कठोर और
अन्दर से तरल,
सदियों से खड़े पहाड़
पेड़ पौधे और झाड़
चिड़ियों को उड़ते देखते हैं
वह जो घुघुती
कभी बैठी थी
देवदारू की डाल पर
और उड़ चली थी
कहीं सुस्ता कर
क्या दी थी इजाजत
उस डाल ने उसे वहां बैठने की,
तुम आये हो यहाँ
बिना इनसे आज्ञा लिए
सहज ही समेट लिया है
यह नमी और सतरंगी मौसम,
सुनो ... यह तुम्हे कुछ
बता रहे हैं कि
तुम भी बन सकते हो इसी तरह
बिना फिक्र किए
बैठा सकते हो कोई बुलबुल
अपने ह्रदय में
और अगर यह सब
न हो सके
तो ख़ामोशी से
बस में बैठ कर
घर जाते वक्त
मेरे बारे में सॊच सकते हो
(अप्रमेय)
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