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Saturday, December 21, 2013

शहर और गाँव के बीच :

शहर और गाँव के बीच
के फासलों को जोड़ती  हैं
वह क्वामा सदृश्य बस्तियां
जिनका अस्तित्व
वाक्यों के बीच
पन्नो के ऊपर
लेखकों के मन से
कुछ अनमनी सी टंकित
हो कर छुप कर
उठाती रहती हैं
महाकाव्यों के भारी-भारी शब्द ,
भाषा में जैसे
आ ही जाते हैं
कुछ विदेशी शब्द
उसी तरह
हमारे भाव संसार को
चमत्कृत करती स्वांस लेती
ठेंगा दिखती यह रेलगाड़ी
जब कहीं यूँही रुक पड़ती है
गोधूलि बेला में
खेतों और बस्तियों के बीच
तब सपाट किसी
संत की सफ़ेद दाढ़ी की तरह
फैले मैदान
आप को लोटा ही देते हैं
हाथ जोड़े या फिर
झरा ही देते हैं
पतझर की तरह
आप के मन के फूल ,
गाँव अपने आप में
और आप अपने पास
एक गुमसुम सा संवाद
उड़ाते हैं हवन के धुएँ की तरह
और रेलगाड़ी निकल पड़ती है
शहर की तरफ ,
आप को उतर जाना है
शहर में
तारकोल की तरह
पसर जाना है शहर में।
( अप्रमेय )






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