अब खिड़कियों से
नहीं झांकती उदासी
चमकती है कौवों के बीच से
छत के ऊपर ,
अब बिस्तर पर
लिपटी नहीं रहती उदासी
टंगी रहती है चौराहों पर
सिग्नल के अंदर ,
उदासी अब बांची नहीं जाती
और न ही रखी जाती है जेब में
वह फहरती है झंडा गाड़े
मेरे देश के धरती के ऊपर।
(अप्रमेय )
नहीं झांकती उदासी
चमकती है कौवों के बीच से
छत के ऊपर ,
अब बिस्तर पर
लिपटी नहीं रहती उदासी
टंगी रहती है चौराहों पर
सिग्नल के अंदर ,
उदासी अब बांची नहीं जाती
और न ही रखी जाती है जेब में
वह फहरती है झंडा गाड़े
मेरे देश के धरती के ऊपर।
(अप्रमेय )
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