Powered By Blogger

Tuesday, September 9, 2014

पेड़

पेड़ तुम पेड़ रहोगे कबतक ?
आदमी के शब्दकोष से
कभी कटते कभी झरते-फ़ुनगते
तुम्हारा नाम
समय के पन्ने में
अर्थ बदलता रहता है ।
चिड़ियों के लिए तुम घर हो
और बहती हवा में
उससे इठलाती  मदमस्त झूमती प्रेमिका
खेतो के लिए तुम परदेश गए पिता हो
जो बादलों को अपनी हरियाली
बेचकर पानी का जुगाड़ करता है ।
पेड़ आदमी की समझ में
तुम सिर्फ पेड़ हो
कभी-कभी एक झोले की तरह
जिसमे वह अपने वीश्वास को 
प्रमाणित करता है
एक- एक मुहावरे
निकालते हुए ।
पेड़ तुम पेड़ न रहो
तभी आदमी , आदमी नही रहेगा ।
सभ्यता को अभी ख़ारिज होना है
आदमी और आदमियत
अभी गाली नहीं समझे जा रहे हैं
यह तो सिर्फ चल रही
न्यायलय की एक बहस है
जिसका फैसला होना अभी बाकी है
पेड़ मुझे फैसलों और कानून की फिक्र नहीं
तुम्हारी ज्यादे है
तुमने जो उगाई थी  कल
मेरे घर के बगल में वह गुलाब सी कविता
वह आज फिर सुना रही है
वही गुलाबी कविता

(अप्रमेय )

No comments:

Post a Comment