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Wednesday, October 25, 2017

दो-चार हो जाने के लिए

आकाश में तो मिलते नहीं दाने
फिर ये चिड़िया क्यों उड़ती है
पंख पसारे इधर-उधर,
निसर्ग ने वैसे ही तो नहीं
दिए उन्हें पंख जैसे
वैसे ही तो नहीं उन्हें
देख कर मुझमें चला आया ये प्रश्न,
इतना मूर्ख तो नहीं लगता
कि अनंत आकाश की यात्रा को
चिड़ियों के पंख के मत्थे मढ़ कर
वह ध्यानस्थ हो गया हो,
आंखो से दूर उड़ती चिड़िया
आंखो के अंदर नांव की तरह
तो डोलती नहीं
वह तो अपने आस-पास, आगे-पीछे
हमें भी तो साथ लिए
सहभागी बना रही होती है
जो कभी न सुलझे ऐसे प्रश्नों से
दो-चार हो जाने के लिए।
(अप्रमेय)

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