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Wednesday, October 25, 2017

कलंक का अवतार

कल औचक नहीं दिख पड़ा था चाँद
सांझ से ही जैसे प्रहरी ने
संभाली थी कमान
पड़ा न व्यवधान 
कि उतर पड़ा 
प्रकाश की सीढ़ियों से
सागर का सागर रस
रस-सागर की लहरें
लहरें न थी
चाँद की गोद में बैठा
अमृतस्य पुत्र के अबूझ प्रश्न थे,
रह-रह कर उन्ही का ही तो
जवाब खोज रहें हैं मदमस्त फकीर
कुरेद रहें हैं चित्रकार
कि पकड़ रहें हैं ध्वनि के फंदों में
गायक- रसकर,
बुद्ध ने पूर्णिमा में
और महावीर ने पूर्ण-चंद्र की रात
वहीं प्रश्न तो सुना था
जिसको पूछते-पूछते वे
भटकते रहे गांव-गांव
कि किसने मुझे गोद में
बैठा देख कर कह दिया
कलंक का अवतार !
(अप्रमेय)

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