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Monday, April 23, 2018

घूंघट ओढ़े

एक कविता घूंघट ओढ़े
रोज आती है सपनों में
सपनें में वह दिखती है
पर कुछ कहती नहीं,
मैं उसके पास नहीं जा पाता
और न ही पूछ पाता हूँ
अक्सर उसके आ जाने की वजह,
उसका चेहरा भी नहीं दिखता
और सुबह जब मैं
कोशिश करता हूँ उसे
याद करने की
तो न ही उसकी साड़ी का
रंग याद आता है
और न ही वह जगह
जहां वह रोज आकर
घूंघट के अंदर से निहारती है मुझको,
कविता !!!
बिना तुम्हारे चेहरे के
कितने झूठे हो गयें हैं ये शब्द
ये तुम बता पाती
काश तुम अपना चेहरा लेकर
हम सब के सामने आ पाती।
(अप्रमेय)

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