रात के अंधेरे में चलता पंखा
सुनने नहीं देता दूर
रेलवे स्टेशन पर आती
हॉर्न देती ट्रेन की आवाज,
कोई भी चेहरा खिड़कियों से
ट्रेन के अंदर दिखाई नहीं पड़ता
मंदिर में सभी देवताओं को
सुला देने के बाद पंडित जी ने
एक दीपक जला रखा है
वो बुझता तो शायद ट्रेन के दरवाजे से
बैग ले कर उतरते दिखते भगवान,
यहां इस रात रोज की तरह
प्रकाश भी है मध्यम और एक
आवाज भी उसी के साथ
संवाद मिलाए हुए है,
झींगुरों के बीच कुछ और भी हैं कीड़े
जो लगातार बोले जा रहे हैं
मैं उनकी आवाज से अंधेरे में
उन्हें पहचानने के लिए
अंधेरा चेहरा गढ़ रहा हूँ,
सुबह होने को आई
रात के बिदाई की खबर
बिना उसके आये ही अखबार सी
हॉकर के फेंके जाने की तरह
मेरे दरवाजे से टकराई।
(अप्रमेय)
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