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Sunday, January 20, 2019

मकान और मैं

एक पुराने मकान के सामने
मैं खड़ा रहा और
लौट आने के बाद मुझे
पता नहीं चला कि कैसे और क्यों
शब्दों में वह धीरे धीरे
घेरा बना रहा है,

उसके दलान में
कोई कुर्सी पड़ी नहीं मिली
जैसे मेरी जिंदगी के दलान में
अब-तक कोई कुर्सी नहीं लगी,

उसके निर्माण काल से अबतक
दलान के बाहर खिली धूप
जब जब होती है
हर सांझ उसके सीढ़ियों तक आ कर ही
उसे बिना छुए लौट जाती है
मैं सोचता हूँ मेरे आस-पास भी तो
धूप बहुत रही पर अपने अंधेरे कमरे में
मुझे हमेशा दीया से ही काम चलाना पड़ा,

उसके दरवाजे बिना पॉलिश के
मेरी आँखों की तरह
हवा में खुल और बंद हो रहे थें
वह शहर में खड़ा था
और मैं जीवन मे खड़ा हूँ
उसकी चहारदीवारी पर समय ने
अब सेंध लगाना शुरू कर दिया है और
मेरी भाषा उसी तर्ज पर
धीरे-धीरे अपने एक-एक ईंट को
गिरा रही है,

उस वक्त सांझ जब घिर आई थी
तो उसकी भव्यता परछाईं सी
पत्तों की तरह दूसरे घरों के
उजालों के बीच डोल रही थी
मैं पशोपेश में था कि कोई आएगा
और दलान की लाइट जलाएगा
पर अंधेरा बढ़ रहा था जिसकी
शक्ल ने मुझे जाने कब जकड़ लिया
और घर पहुंचा कर शहर की गलियों में
लापता हो गया।
(अप्रमेय)

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