आज भी उसी से काम चलाना पड़ा
उसी पिछवारे
नल के चबूतरे के पास
जिसे देखा था
वो अब भी मेरी स्मृति की मिट्टी में
खिला हुआ कहा रहा है
ये लो पीला वसंत और
ये लो पीली सुगन्ध,
मैं बहुत दूर हूँ अपने शहर से
और अपने वसंत से
स्मृतियां भी अब बूढ़ी हो रहीं हैं
चेहरे को अब जब लौट-लौट
आईने में देखता हूँ
इस पीलेपन को स्मृति में ठहरे
सरसों के फूल से मिलाता हूँ
एक सोहंगम शब्द 'वसंत'
शब्द के भीतर बस खिला पाता हूँ।
(अप्रमेय)
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