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Thursday, February 21, 2019

शाम और कविता

शाम होते ही
दूर खलिहान से
टप्पा खाती लुढ़कती
चली आती है कानों के पास
बच्चों की चहकती आवाज,

मैं बाहर दुआरे पर लपक कर
उन्हें पकड़ने की कोशिश में
उठ कर बाहर की तरफ बढ़ता हूँ,

दरवाजे के ऊपर रेंगती छिपकली
अनजाने में सिटकनी के पास
फिसल आती है
बूढ़ी मां की मोतियाबिंद आंखे
उसे देख नहीं सकती और
कभी उसे देख कर अचानक
चीत्कार करती हुई
पत्नी की घबराई आवाज की स्मृति
मुझे अनगिनत कालछन्दों में धकेल देती है
जहां से मनुष्यता चीत्कार करते हुए भागी थी,

मैं मुड़ कर तलाश करता हूँ झाड़ू
जिससे उस छिपकली को
वहां से हटा सकूँ,
शाम पूरी हो जाती है
जैसे अभी मैं पूरी कर रहा हूँ
अपनी कविता।
(अप्रमेय)

Wednesday, February 13, 2019

निर्वाण, आम और कविता

कभी कभी
कोई कविता अंदर से
घुमड़ती हुई धीरे धीरे
अंगुलियों के पास आकर
बादल की तरह छा जाती है,

कागज का सा खेत
कुदाल की सी कलम
मेड़ पर प्रतीक्षा करता किसान
बादल के पार देख लेना चाहता है,

जोर जोर से चलती हैं हवाएं
हवा में पके आम की तरह
इधर-उधर लहराती है कविता
कब चू जाए
कुछ कहा नहीं जा सकता,

एक भिक्षु ने आज के
हजारो वर्ष पहले पूछा था
निर्वाण को कैसे समझे प्रभु
बुद्ध ने एक पके आम को
दिखलाते हुए कहा था
उसका पक कर अपने आप
गिर जाना ही....
कुछ उसे इस तरह समझो,

फिलहाल मेरा आम या मेरी कविता
उस पेड़ पर नहीं है
कोई शरारती बच्चा भी नहीं दिखता
की उससे तहकीकात करूँ
बचपन मे एक बार पका आम
एक झटहे से तोड़ते वक्त
अटक गया था

आज उसी तरह मेरी कविता
और मेरा निर्वाण दोनों ही
बिना पेड़ के ही कहीं
अटक गए हैं।
(अप्रमेय)

Sunday, February 10, 2019

घोंसला

मैंने आंख समेट कर
जब अपनी तलाशी ली तब
समझ पाया कि इस साल
तुम्हारी याद जो मेरे पेट में
अपना घोंसला बनाए हुए है
वह किसी तूफान का संकेत है,

पिछले साल न तूफान था और
न ही कोई जलजला इसलिए
तुमने ठीक मेरे माथे के बीचों-बीच
अपना घोंसला बनाया था और तब
तुम्हें ठीक से मैं देख पाया था
अपनी कविताओं को
ठीक तुम्हारे घोंसले की तरह
स्वरों से बुन पाया था,

माथे और पेट के घोंसले का
सिलसिला तो चलता रहा पर
इधर बार-बार
आंखें सिमट जाती हैं
हृदय के बीचों-बीच
किसी डाल पर अटक जाती हैं
घोंसला वहां अब बनना ही चाहिए
इस प्रार्थना के साथ
आंखें बंद बंद और फिर
बंद हो जाती हैं।
(अप्रमेय)

वसंत

आज भी उसी से काम चलाना पड़ा
उसी पिछवारे
नल के चबूतरे के पास
जिसे देखा था
वो अब भी मेरी स्मृति की मिट्टी में
खिला हुआ कहा रहा है
ये लो पीला वसंत और
ये लो पीली सुगन्ध,

मैं बहुत दूर हूँ अपने शहर से
और अपने  वसंत से
स्मृतियां भी अब बूढ़ी हो रहीं हैं
चेहरे को अब जब लौट-लौट
आईने में देखता हूँ
इस पीलेपन को स्मृति में ठहरे
सरसों के फूल से मिलाता हूँ
एक सोहंगम शब्द 'वसंत'
शब्द के भीतर बस खिला पाता हूँ।
(अप्रमेय)