शाम होते ही
दूर खलिहान से
टप्पा खाती लुढ़कती
चली आती है कानों के पास
बच्चों की चहकती आवाज,
मैं बाहर दुआरे पर लपक कर
उन्हें पकड़ने की कोशिश में
उठ कर बाहर की तरफ बढ़ता हूँ,
दरवाजे के ऊपर रेंगती छिपकली
अनजाने में सिटकनी के पास
फिसल आती है
बूढ़ी मां की मोतियाबिंद आंखे
उसे देख नहीं सकती और
कभी उसे देख कर अचानक
चीत्कार करती हुई
पत्नी की घबराई आवाज की स्मृति
मुझे अनगिनत कालछन्दों में धकेल देती है
जहां से मनुष्यता चीत्कार करते हुए भागी थी,
मैं मुड़ कर तलाश करता हूँ झाड़ू
जिससे उस छिपकली को
वहां से हटा सकूँ,
शाम पूरी हो जाती है
जैसे अभी मैं पूरी कर रहा हूँ
अपनी कविता।
(अप्रमेय)