पलकें ढप से मुंदती हैं
गिरती हुई बूंद सी
मुझे नहीं मालूम
बूंद, आकाश और
धरती का रिश्ता पर
इतना कह सकता हूँ
जब जब पलकें मुंदती हैं
मेरे आंखों का पानी
अंदर कहीं समुंदर में
रिस जाता है
और मुझसे क्रांति कर
धरती पर कहीं
बरस जाता है।
(अप्रमेय)
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