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Monday, November 11, 2019

पागलपन

पागलपन
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इधर बहुत दिनों से
चिड़ियों ने मेरी खिड़की के पास
आवाज नहीं लगाई,
पीपल के पत्ते उड़ कर
नहीं लाए कोई संदेसा
मेरे दरवाजे के पास,

इस बरसात झिंगरो और मेढकों ने भी
नहीं सुनाई कजरी,

आकाश ने भी गरज कर
कोई डांट नहीं लगाई,

इस वसंत फूल तो खिले
पर किसी ने इत्र का छिड़काव
नहीं किया मुझपर,

और इस होली पलाश भी
उतरा नहीं मेरे माथे पर
अबीर लगाने,

मैं सोचता हूँ और चुप
हो जाता हूँ, फिर
धन्यवाद देता हूँ कविता को
कि किसी से कुछ कहने के बजाए
कुछ लिख देना कैसे
औषधि बन जाता है
पागलपन से बचने के लिए।
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(अप्रमेय)

प्रार्थना

बिना शब्द
बिना ध्वनि
बिना इशारे के
मैं तुम्हें पुकारना चाहता हूं,
परत दर परत
आवरण उतरे कुछ ऐसा
फ़ना हो जाना चाहता हूं।
(अप्रमेय)

जिंदगी

जिंदगी भागती जाती है
और हम वहीं ठहरे रहते हैं
अपने-अपने मकानों के
दीवारों के बीच,

अपनों कपड़ों के बीच
उनके रंग का क्षीण होना
हमें तब तक नहीं दिखाई पड़ता
जब तक हमारी आंखें
अनंत के विस्तार को झांखने
हमसे दूर नहीं चली जातीं,

हमारा रूपया हमारे ही चिता
को जलाने के काम आएगा
और हमने जाने-अनजाने
जो खिंचवाईं हैं तस्वीरें
उनमें से जो उन्हें पसंद आएंगी
केवल वही दीवार पर टांगी जाएंगी,

हम यह नहीं समझ पाते
जानते हुए भी कि
उम्र भर हमारे जाने का प्रयोजन
सिर्फ इसलिए बना रहता है
क्योंकि हम जानते नहीं
कि जाना किसे कहते हैं।
(अप्रमेय)

चूक जाता हूँ

तुम्हें जिस तरह मुझसे
प्रेम मिलना चाहिए
वह नहीं दे पाता,
मैं सोचता हूँ कि मैं
कितना अभागा हूँ,
मैं इस सत्य को नकार जाता हूँ
और इससे बच सकूं इसके लिए
अपने चित्त को ऊंचा उठाने
की फिक्र में लग जाता हूँ,
ईश्वर के अलावा कोई सहारा नहीं दिखता!
मैं उसकी शरण में चला जाता हूँ
और एक बार फिर तुम्हें
प्रेम करने से चूक जाता हूँ।
(अप्रमेय)

सोचता हूँ

सोचता हूँ बचपन में
मुझसे नहीं लिखवाई गई स्वरचित
कोई कविता
सो आज लिख रहा हूँ
कविता,

सोचता हूँ मुझसे अगर
किसी ने भी ठीक से
कर लिया होता प्यार
तो आज शायद सभी से कर रहा होता
प्यार,

सोचता हूँ अच्छा ही हुआ
जो स्कूल की कक्षाओं में
ईश्वर पर मुझसे नहीं
पूछा गया कोई
सवाल।
(अप्रमेय)