कविता में मोची
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वह चमड़े को खुरचने के पहले
नापता है जूते की लंबाई और चौड़ाई,
सोल लगाने के ठीक पहले
अपने औजार को पत्थर पर धार लगाते
वह मेरी आँखों से उतर कर
मेरी इच्छाओं का भी अनुमान लगा लेता है,
सलीके से पर थोड़ा बेदर्दी से
खुरच रहा है वह अपने हाथों में लिए
किसी बेनामी औजार से चमड़ा,
मुझे किसी स्कूल में उस औजार का नाम
पढ़ाया नहीं गया पर हां
शब्दकोश में शायद उसका नाम लिखा हो,
मैं खुरचे जा रहे उस चमड़े की
पीड़ा महसूस कर पाता हूँ
पर अचानक तर्क से चारों तरफ
कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि के अंदर कर्ण सा
घिर जाता हूँ,
नाली के ऊपर अपनी दुकान पर
मोची ने लगा रखी है
अपने भगवान की फ़ोटो जिसपर
अनायास निगाह जाती है मेरी जहां
चमड़े की पीड़ा और ईश्वर के होने
दोनों पर ही प्रश्न-चिन्ह सा
चित्र बना जाती है!!!!
(अप्रमेय)
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