सफ़र बहुत लंबा रहा छांव दिखी ही थी
कदम रुके नहीं और रस्ते बेहिसाब आए,
फ़ुरसत कहाँ कि करूँ ज़माने का हिसाब
तुम याद जो पल-पल बेहिसाब आए,
अब्र सा उठ जाने की जद्दोजहद में
टूट के बिखरे हम और ग़म बेहिसाब आए,
ख़्वाहिश में राहत मील के पत्थर की सी अटकी रही
सफ़र बढ़ता ही रहा सफ़र बेहिसाब आए,
ग़ज़ल लिखूं के ग़ज़ल पढ़ू या ग़ज़ल जियूँ 'मिसरा'
उनकी आँखों की तकरीर में डूब हम बेहिसाब आए,
(अप्रमेय)
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