इस भीड़ में
गुम होता हुआ मेरा चेहरा
रात के एकांत में
परिंदे सा उड़ता हुआ
अचानक मेरे चेहरे पर चस्पा हो जाता है,
धीरे धीरे उसकी सांस
मेरी आत्मा को गुब्बारे सा फुलाती है
मैं उस परिंदे का नाम नहीं जानता
कोई भी नहीं जानता उसको
उसे जानूं, दर्ज करूँ इससे पहले
रात और गहरा जाती है
सुबह हो जाती है.....
मेरे सामने एक सर कटी भीड़
कुछ इधर-उधर तलाशती है
बार-बार कोई नाम पुकारती है।
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अप्रमेय
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