अंदर ही अंदर वह अपनी
शर्मसार आंखों से झांकती है मुझे
और कतराता रहा हूँ मैं उससे
बाहर ही बाहर,
बहुत सी ऐसी पंक्तियां
इसलिए हो जाती हैं लिपि-बद्ध
क्योंकि हम उन्हें मन ही मन
फेंक आते हैं हृदय के पार,
वह ढहती हैं , गिरती है
और उनके साथ
बच जाता है कुछ
जो कभी-कभी गुनगुनाई जाती हैं
महफिलों में सुरीली आवाज के
कैदखाने से,
दुःख मन का जो हम
कह नहीं पाते वह अंदर
स्वांसो के बीचों-बीच
मील का पत्थर बन
रोकता है मेरी यात्रा।
(अप्रमेय)
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