रात
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शहर के मुहाने
रात अचानक उतर आई थी,
थोड़ा और आगे
सरसराती हवाओं के साथ
वह मन्त्र दोहरा रही थी,
मन्त्र चलता रहा वह बढ़ती रही,
खलिहान पार कर के वह अब
मुझसे दूर पेड़ों के साथ आसन जमाए
ध्यानस्थ हुई जा रही थी,
सुबह टहलते वक्त मेड़ों के इर्द-गिर्द
निर्वाण सी, मुक्त सी, नहीं-नहीं
ओस सी ठंडी वह मुझसे बिना कुछ कहे
कुछ कही जा रही थी।
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अप्रमेय
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