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Monday, November 16, 2015

क़ाबलियत

क़ाबलियत एक ऐसा हथियार है
जिसे सामूहिकता का आशीर्वाद है
देखो कैसे मरता है आदमी 
ज़िन्दा रहते हुए भी
पुर्ज़े की तरह,
हम जिसे रहनुमा समझते हैं
और जिससे गुहार लगाते हैं
उसने भी क़ाबलियत का सर्टिफिकेट
इन्ही व्यवस्थाओं से अर्जित किया है,
आदमी का ज़िन्दा रहना
आदमी की तरह गुनाह है ,
तुम दरिंदे हो तो क़ाबलियत
तुम्हारे लिए दो कौड़ी की चीज़ है
इस व्यवस्था में इन सब की तरह
जीना चाहते हो तो समझो ...
क़ाबलियत एक काग़ज़ का नाम है
जिसे ट्रांसफर करने का अधिकार
पुरखों के पास है ।
(अप्रमेय )

मेरी नहीं

जो लिख दिया वो मेरा नहीं 
जो कह दिया वो मेरा नहीं
जो बात ह्रदय में टीस रही 
वो भी मेरी नहीं ..मेरी नहीं ।।
(अप्रमेय )

रात रात में

कोई कैसे खोलता है अपने दिल का राज धीरे धीरे
जैसे कोई कली अपना ही फूल गुनती हो धीरे धीरे
खिलें बाग़ में दिखें और चुभ भी गएँ उनकी आँखों में
मलाल बस यह रहा रंग छोड़ न पाएँ उनके हाथों में 
जिंदगी जिंदगी का मतलब कुछ यों बताती है 
रात रात में जैसे और रात ढल सी जाती है ।
अप्रमेय

ऐसा संसार पाया

हमने जंगल में आग पाई
बची राख भी माथे से लगाई
हमने देहरी पर दीप जलाएँ
अपने हाथ जुड़े पाएँ
हमने ध्वनि में शब्द की चिंगारी पाई
शास्त्र के धुएं सुलगाए
धीरे धीरे समझा हमने
अपने भीतर की आग को
जिसके ताप से
हो सकती थी दुनिया
प्यार सी गुनगुनी
पर हमने उसे दबाया
जिसके एवज में
ऐसा संसार पाया ।
(अप्रमेय)

कुछ फुटकर शेर ३

दूर मैदानों में जुगनुओं सी चमकती हैं बस्तियां
दिल के अंधियारे से जैसे बोलती हो स्मृतियां ।।

कुछ बोलिए कि ढल न जाए सूरज 
रात किसी ठिकाने पर नहीं होती ।।


इन आँखों का क्या कहिए कोई भरोसा नहीं
अपनी आँखों से देख लिया उनकी आँखों से भी ।।


ये शाम भी कुछ इस तरह अलग पड़ी पड़ी
तुम होते ढलती रात पलकों पर मुंदी मुंदी ।।


कोई रास्ता बता दीजिए
या फिर उस तक पहुँचा दीजिए।।
ये क्या हुआ इस जगह पहुँच कर
कि ये मुक़ाम गिरा दीजिए।।


अप्रमेय

अपने होने में

रात जब जब आई 
ख़ामोशी लाई
फाड़ डाला उजालों ने
कान का पर्दा
जिंदगी ने दिया अपना अर्थ 
सवालों में
मैं सुनता रहा
बुनता रहा
राह पर चलता रहा
अपने होने में
अपने मिटने को
दिन ब दिन
गुदड़ी की तरह
बुनता रहा ।
(अप्रमेय)

साथ हुआ सो

मन का फूल
वन के फूल से 
मिल गया
साथ हुआ सो 
बिछड़ गया।।
(अप्रमेय)

उसी तरह

कोई शब्द
कुछ रंग
एक बात
जिसे कह न सका कभी
वह मैंने कहा 
रात के अंधरे में
पूछा अगली रात
कि जोड़ो कुछ सिलसिला
वह चुप था
उसी तरह
जैसे उसने सुना था
उसी तरह जैसे मैं उसे
सुनाने को आतुर था ।।
(अप्रमेय)

जिंदगी का कारोबार

रात कैसे पसर जाती है
देह के बाहर से धीरे धीरे
आत्मा के अंदर
यही कही यहीं से 
जाने कब से 
सिलसिले में गा रहे हैं
झींगुर सामवेदी गान,
जाने कौन सुनता है
झाड़ियों के बीच से इनको ,
तितलियाँ जाने किन घरौंदों में
चली जाती हैं वापस,
मैं देखना चाहता हूँ
जब जब गौर से इनको
कोई अनादि मीठी लोरी
मेरे कानो में गुनगुना जाता है
सतत जिंदगी का कारोबार
अपनी धार में चला जाता है ।।
(अप्रमेय )

कहीं दूर ले जाए

आह 
शब्द 
स्वर 
रूप
अपने में गहन
मुझे पहचाने
बार बार गले लगाए
कहीं दूर ले जाए ।।
(अप्रमेय)

मेरे हिस्से

मेरे हिस्से में जो है 
उसी का इंतजार है
या खुदा 
क्या यही तेरा चमत्कार है !
(अप्रमेय)

हम चले जाएंगे

हम चले जाएंगे एक दिन
जैसे चला गया वसंत
फूल झर गए,
जैसे चली गई बरसात
नदी-तालाब सूख गए,
मैं खोजता हूँ अपना हेतु
और जैसे के स्थान में
किसी का भी नाम नही रख पाता
पर मैं झर रहा हूँ
कि मैं सूख रहा हूँ
अपने अस्तित्व में
आत्म का नाम गढ़े
अपनी तड़प
सुन रहा हूँ |
(अप्रमेय)

छोटे फुटकर शेर

कोई मिल गया राह चलते यों ही 
मंज़िले ख़याल फिर बौना निकला ।।

वो उधर करते रहे इंतज़ार 
इधर मैं राह देखता रह गया ।।

और क़रीब और क़रीब और क़रीब आ जाओ
फ़ासलों के दरमियां सिर्फ बात बना करती हैं ।|


सुना तुमने वही जो तुम्हे बतानी थी
कह न सका वही जो तुम्हे सुनानी थी ।।



(अप्रमेय)