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Friday, September 18, 2020

गजल

कुछ कहने चलता हूँ
चुप्पी छा जाती है
गीत गाने उठता हूँ
आंख भर आती है,

रास्तों पर चलते हुए
घर की याद आती है
बिस्तरे पर लेटे हुए
जिंदगी सताती है,

इस शहर से उस शहर
रात कुछ बसर हुई
गांव से क्या निकले हम
फिर कभी न सहर हुई,

कोई पैमाना नहीं यह
बस दिल्लगी समझना
गजल हुई न हुई 
कोई फर्क नहीं, कोई फर्क नहीं!
(अप्रमेय)

Thursday, September 17, 2020

युद्ध

जिंदगी पकड़ती है ऐसे
जैसे किसी अजगर 
ने लपेट रखा हो,
सुबह-शाम एक अजीब सी उदासी से 
आंख चुराते रहने का सिलसिला 
अनवरत जारी है,
हमारे पंजे 
दिमाग के इशारों पर लड़ते हुए
ढीला पड़ जाते हैं
एक चाय की प्याली को भी 
अब थामे रख पाने की इच्छा नहीं करती,
बच्चे आते हैं अपनी पेंसिल को ही 
तलवार बना लेते हैं
मैं देखता हूँ और डरा हुआ उनको कुछ
कहते-कहते रुक जाता हूँ
वे आपस में युद्ध करते हैं
और जोर-जोर से हंसते हैं
मैं चुप रह कर भी
युद्ध के नाम से कांप जाता हूँ।
(अप्रमेय)

Sunday, September 13, 2020

मुद्दे

मुद्दे कम हैं
गिले और शिकवे
तो बिल्कुल नहीं
असर मेरा इतना भर है
कि बदनाम हूँ
जाने किसके लिए!
सुना है कभी कहीं किसी गली में
जब भी मेरी बात हुआ करती है 
वे मुस्कुराते भर हैं
और चुप हो जाते हैं
चुप रह
(अप्रमेय)

लिख रहा हूँ

इतने दिनों से लिख रहा हूँ
क्योंकि मुझे मालूम है
वे लिखना नहीं जानते
उड़ना जानते हैं 
तैरना जानते हैं
उदासी जानते हैं
पीड़ा जानते हैं
दुख जानते हैं पर
वे बुद्ध को नहीं जानते
गांधी को भी नहीं जानते
पता नहीं पर यकीं के साथ
कह सकता हूँ
मेरे देश के पशु-पक्षी
जीजस को भी नहीं जानते होंगे,
सुनो कोई अनुवादक है क्या
मेरे परिचितों में जो
इनकी स्थिति का 
अनुवाद कर सकें
दुख क्या होता है और 
प्रेम का क्या अर्थ है
इसका सही-सही 
हम सभी को
अंदाज़ा दिला सके।
(अप्रमेय)

कह देना उनसे

सुनो उनसे कह देना
अब पत्तों के झरने की आवाज 
नहीं सुनाई पड़ती
टूटते तारे अब 
मनौती पूरी नहीं कर पाते
फूल अब जड़ों की कहानी 
भौरों को बिना बताए 
रस भर पिला देते हैं
एक शहर से निकलते
दूसरे शहर तक जाते रास्ते
अब बिना चाय पिये
हांफ रहे हैं
चिड़िया चुप है
नदियों से उसने पानी पीना छोड़ दिया है
गिलहरी ने कुँए के अंदर 
बनाया है अपना घर
कल रात एक बुजुर्ग को
मैंने सुनाई अपनी बात
उसने कहा कवि हो ?
मैंने कहा नहीं 
पहले था कभी 
अभी फिलहाल
पागल हूँ।
(अप्रमेय)

ढल जाएगी शाम

शाम ढल गई
एक दिन मेरी भी 
ढल जाएगी जिंदगी
सुबह होगी कारवाँ होगा
और धूल की तरह
बवंडरों के माफिक जाने कहाँ
बिसर जाएंगी सबके बीच से 
मेरी यादें,
मैं सोचता हूँ सबके बीच से जाना
और खुद अपने-आपको
खोते हुए देखना 
कितनी सुंदर घटना है
जहां हर तस्वीर हर चेहरा मुझे
पकड़ता है भाव-विभोर होते हुए
मेरे अस्तित्व के एक-एक कतरे का
सूखा रंग उनके पास है
जब-जब आंख भरेगी
तब-तब सागर में लहरे उठेंगी
तुम जिसे भाषा में
कविता समझते हो
दरअसल वे जीवन की छुपी हुई औषधि हैं
जिसके सूत्र कविताओं के चित्र में
प्राचीनतम भाव-लिपि से अंकित हैं।
(अप्रमेय)