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Monday, October 28, 2013

परमात्मा स्टेशन की तरह है

परमात्मा स्टेशन की तरह है 
विशेष अर्थों में 
वियोग के साथ, 
घट जाने में आलोकित 
आप के बगल 
स्थिर ट्रेन के रेंगने से
अपनी ट्रेन को घिसकते
महसूसना,
खड़ा स्टेशन ही
पकड़ता है आप को
या रोकता है
लाल बत्ती की तरह,
स्मृति और निरंतर
के बीच
हर जगह
हर मोड़
स्टालो पर लटका हुआ
कहीं जाने के पहले
सीटी बजाता हुआ
वह पसरा है
हर जगह,
हमें ट्रेन में
नहीं फुलाना है तकिया
उसके हाथ पर ही
सर रख कर
सो जाना है


(अप्रमेय)




Sunday, October 27, 2013

नंबर प्लेट वाला रिक्शा

जाने कहाँ से
किस गाड़ी का
लगा था नंबर प्लेट
बैरिंग के पास
टंगा हुआ,
उसका रिक्शा भारत के
रंग-बिरंगे नक़्शे जैसा
चस्पा था फुटपाथ के उपर,
गाँव से शहर आई
उन औरतों की लिपस्टिक जैसा
लाल गद्दी सी सीट
तैयार थी उस दिन खड़ी
धकियाने के लिए
शहर की भीड़,
पहियों पर झालर लटके
नयी दुल्हन की नथुनी की तरह
हुड सा घूघट चढ़ाए
उर्दू के सारे अदब को
वह खड़ा पेश कर रहा था,
दोनों हैंडिलों के बीच डोलची में
रेडियो बजते-सुनते
वह पड़ा था
रिक्शे के उपर
भारत के संतों के
पेट की तरह पसरा
मुझे जाना ही पड़ा उसके पास
पर मैं उसे जगा न सका
वह शांत पड़ा था
भगत सिंह की तरह
सूली सा
अपने रिक्शे पर लटका।

( अप्रमेय )






Thursday, October 24, 2013

चाय बेचता आदमी

ठेले पर चाय पकाता
चाय बेचता आदमी
आदमी-औरत के भेद को
लात मार कर
चाय पकाता आदमी'
पतुरियों की तरह
ग्राहकों की आव-भगत
करता-बुलाता
चाय बेचता आदमी
चाय पकाते आदमी की
मूछे कभी न मिलेंगी
सिपाही की तरह खड़ी-तनी
अपनी मर्दांगनी को उबालता
कप में ढाल कर पिला देता
चाय बेचता आदमी
पतीले को घिसते-माजते
अपनी शर्म को ट्रे में सजाकर
ग्राहकों के सामने
ले जाता है
चाय बेचता आदमी
हर रात अपनी इज्जत को
फुटपाथ पर लुटाकर
गालियों से थैला भर-भर
अपने बीवी-बच्चो के सामने
उसे परोस देता
रात को घर लौट कर आया हुआ
चाय बेच कर आदमी।

(अप्रमेय-दिल्ली विश्वविद्यालय के पास )

Sunday, October 20, 2013

बेलवहीँ

उम्र बिताया
सामने वहां
दिख पड़ता है कुआँ
जिसके मुखाने अगल-बगल
उगी रहती है छुई-मुई,
सबकी आस्था बटोरे
धूप-छाँव ,बरसात
और आसमान को ताकते
बराबर चौकी लगाये
तगद के पेड़ के नीचे
पहरा देते रहते हैं
वहां बरम-बाबा,
कोई भी जाये
वहां से खाली हाथ नहीं लौटता
नौजवान हो तो छिम्मी
औरत हो तो अमरुद
बूढ़े हो तो बेल
बच्चा हो तो कहीं न कहीं से
निकल ही जाता है
उसके लिए
कोई न कोई लरिकासन,
अजब खुटियाये बाल
सर्दियों में पैरों में झुलसे
वहां जीवित रहने की
कथा सुना जाते हैं,
रह-रह कर उठती बैठती सी
घुल ही जाती है
वहां कोई सोंधी महक,
सुनाई पड़ ही जाता है
वहां गोधरी बेला में
झिगरों का सामगान
जिसे ताल देती रहती है
आंटे की पुक-पुक मशीन,
वहां जीवित हैं
दिल के ताखे पर
भोग लगाये-बिठाये
ठाकुर बाबा,
ओसारे वहां कभी खाली
नहीं पड़ा रहता बिड़वा
और इन सब के बावजूद
मैं कहीं भी रहूँ
मेरे ह्रदय में
जलती रहती है
इतने बल्बों के बीच
बुढ़िया के मड़ई की
वह ढेबरी
जी है यही है
मेरा प्यारा गाँव
बेलवहीँ
(अप्रमेय )  









Friday, October 11, 2013

चिड़िया

तुम दृश्य हुए 
सुबह 
अपनी आवाज के पास 
मेरे ह्रदय के बाहर
मंगल गान करते- चहचहाते
फुदक ही आये
खिड़की से
पर्दों को हटाते अन्दर
ऐसे में
तुम्हारे साथ
हो लेने चाहती है आत्मा
यहाँ भी और वहां भी
निकल जाने के लिये
रात भर डूबती हुई
इस जल-लीला से ,
स्मृति शेष
बची ही है कहीं
किसी संघर्ष से विचलित
अतिरेक एकांत में,
धैर्य स्वांस लेता है
फुदकने की ताकत
बटोरते हुए।
उड़ना ही है
उड़ना पड़ेगा ही
तुम अपनी कहानी न लिखो
फिर भी
अपनी उड़ान में
तुम लिख ही जाओगे
अपनी कहानी।
(अप्रमेय)



Tuesday, October 8, 2013

नैनीताल


आतें हैं जाते हैं
इन पहाड़ो को देख
क्या वे कभी समझ पाते हैं
यह जो ताल है
पहाड़ो के बीच 

संकेत देते हैं तुम्हे
तुम ऐसे बनो जैसे
बाहर से कठोर और
अन्दर से तरल,
सदियों से खड़े पहाड़
पेड़ पौधे और झाड़
चिड़ियों को उड़ते देखते हैं
वह जो घुघुती
कभी बैठी थी
देवदारू की डाल पर
और उड़ चली थी
कहीं सुस्ता कर
क्या दी थी इजाजत
उस डाल ने उसे वहां बैठने की,
तुम आये हो यहाँ
बिना इनसे आज्ञा लिए
सहज ही समेट लिया है
यह नमी और सतरंगी मौसम,
सुनो ... यह तुम्हे कुछ
बता रहे हैं कि
तुम भी बन सकते हो इसी तरह
बिना फिक्र किए
बैठा सकते हो कोई बुलबुल
अपने ह्रदय में
और अगर यह सब
न हो सके
तो ख़ामोशी से
बस में बैठ कर
घर जाते वक्त
मेरे बारे में सॊच सकते हो
(अप्रमेय)


थोड़ी-थोड़ी


थोड़ी-थोड़ी बटती
ही चली गयी जिंदगी
रिक्शा खोजने के साथ
बटुए से पैसा निकलने के साथ
उतरते हुए गाड़ी से
बच कर रास्ते पार करने के साथ,
थोड़ी-थोड़ी बटती
ही चली गयी जिंदगी
मोल-भाव करते
आलू-प्याज के साथ
किनारे दूकान पर सजी
गरम-गरम-जलेबी के साथ,
बटती ही चली गयी जिंदगी
सुबह से शाम तक
उठने के साथ
बच्चों की गेंद खोजने के साथ
ट्रेन की टिकट खरीदते
काउंटर के साथ
गुम सी हुई कोई कविता
आकाश में निहारने के साथ
जी हाँ
बटती ही चली गयी जिंदगी
अपने को बटते हुए
देखने के साथ।
(अप्रमेय)

Friday, October 4, 2013

छोटी कविताएँ


  १

वह भी था जरुरी
यह भी है जरुरी
कभी था जो दर्द-दर्द बन के
आज है धुआं-धुआं
चेहरा अब यह किसका-किसका ?
आँखों में है बसा-बसा।

          २
कल भी और आज
उम्मीद और इंतजार
बैठे-बैठे नींद
यह- आदत
अब पुरानी हो गयी।
         ३
एक छोटी सी जिंदगी
जिसमें आदमी
समेटता है
अतीत
बोता है
बीज
मुझे अक्सर
अब जिंदगी से घबराहट होती है।
        ४
कल बोला उसने
जो कुछ भी अब
गौरतलब है
मरम्मत-तलब है।
        ५
जो नहीं लिख सका
केवल वही कविता
तुम्हारे लिए थी।

(अप्रमेय )