हम हैं ही विराट :
कविता जन्म ही नहीं लेती
विराट के साथ
ऐसा मुझे उसके बरक्स खड़े होकर
कुछ कहने के वक़्त समझ आया,
समझ आया ड्राइंगरूम का फूल
फूल नहीं प्लास्टिक से भी बत्तर
फूल की आकृति लिए भ्रम,
समझ आया लहराता शब्द
खड़ा होता हुआ शब्द
समझ आई परिभाषा
हमसे जो निर्मित हुई भाषा...
भाषा नहीं शब्द....
शब्द नहीं ध्वनि....
ध्वनि भी नहीं.....
तुम्हारे अहिर्निश झरते
संवाद को दरकिनार करती
अतृप्त अभिलाषा,
हमने सुना नहीं
सुनाया
देखा नहीं
दिखाया
समझा भी नहीं
समझाया,
हमने रचे इतिहास
जहाँ हम खड़े हैं वहीं से
पीछे और पीछे
अपनी उपस्थिति का निर्जीव बीज डाले
हमने रची आकांक्षाएँ
जहाँ हम खड़े हैं वहीं से
आगे और आगे
तकनीक से अंकुरण का खयाल भरते,
हमारा होना तो तय था, तय है
तय रहेगा भी
पर विश्वास से नहीं
विज्ञान से नहीं
और ज्ञान से भी नहीं,
कुछ होने के लिए नहीं
नहीं ; कुछ नहीं होने के लिए भी
हम हैं, बस अपने आप
निपट अपने लिए विराट के साथ
नहीं ...
हम हैं ही विराट ।