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Monday, November 16, 2015

छोटे फुटकर शेर

कोई मिल गया राह चलते यों ही 
मंज़िले ख़याल फिर बौना निकला ।।

वो उधर करते रहे इंतज़ार 
इधर मैं राह देखता रह गया ।।

और क़रीब और क़रीब और क़रीब आ जाओ
फ़ासलों के दरमियां सिर्फ बात बना करती हैं ।|


सुना तुमने वही जो तुम्हे बतानी थी
कह न सका वही जो तुम्हे सुनानी थी ।।



(अप्रमेय)

Monday, October 26, 2015

कोई कैसे कहे

कोई कैसे कहे कि क्या कहूँ उनसे
न कहना ज्यादे सुकून दे जाता है !!
(अप्रमेय)

खुदा भी बन सकते हैं

हम कर सकते हैं
कुछ इन चींटियों के लिए
हम पत्तों को काँटों से
हवा में छितिग्रस्त होते बचा सकते हैं,
रुके संडास के जल को ईंट हटा कर 
बहाव दे सकते हैं ,
हम सूखती दूब को
पानी की कुछ बून्द डाल कर
हरा रख सकते है
अगले बसंत के लिए
हम जुगनुओं को इतिहास से
गोरैया को घर के आँगन से
बूढ़ों की बीतती जिंदगी में
जवानी का साथ दे कर
थोड़ी और गहरी सांस भर सकते हैं
हम खुदा को याद करते
किसी न किसी का खुदा भी बन सकते हैं ।।
(अप्रमेय )

इतिहास !

रात है या गुलदस्ता....
याद !
जिंदगी है या मंच....
नाटक !
आदमी है या हथियार...
क़त्ल !
ईश्वर है या समाचार..
स्वप्न !
सवाल है या जवाब...
इतिहास !
(अप्रमेय)
ज़िंदगी से कर ली आँखे दो चार
मौत से इश्क लड़ाना चाहता हूँ
(अप्रमेय)

उतर आओ

उतर आओ सांझ सी मेरी रूह में
कि मैं अब डूब जाना चाहता हूँ ।।
(अप्रमेय)

स्वर मंगल

मैं लिख सकूँ
कोई गीत
तुम्हारे लिए
जिसमे छंद क्या,पद क्या,
स्वर क्या !
किसी की प्रतिबद्धता न हो,
तुम गाओ उसे
बिना किसी संकोच के
कि सुन सके तुम्हारा हृदय
कि डोल सके तुम्हारे
अंतस का जंगल,
कोई चिड़िया
कोई जुगनू
कोई भी पतंगा
बिना आहट के
मिला सके तुम्हारे गीत में
सृष्टि का स्वर मंगल
(अप्रमेय)

मैं खोजता रहा

मैं खोजता रहा 
अपना सहचर
बाद बहुत बाद में
खुला अर्थ
बंद मुट्ठी के खुल जाने जैसा,
मैं समझता रहा
प्यास सूखे गले को नम करती है
उधर खुली मुट्ठी ने जब पकड़ा हाथ
जाने का समय नजदीक था
इच्छा के दानव ने
घोटी मेरी सांस
सहचर का पुनः
छूट गया साथ ।
(अप्रमेय)
ये कौन ठहरा सा दिख गया था कभी
उसके पाने की ख्वाइश ने ठहरने न दिया।।
अप्रमेय

कोई सुबह सा शाम हो जाता है

कोई सुबह सा शाम हो जाता है
कोई धुआँ सा आग हो जाता है।
अपनी हस्ती को भी बिखरता देख
है कोई जो बाग़-बाग़ हो जाता है।
ज़िंदगी मिली तो सभी को इक ही मगर
हिस्से-हिस्से में कोई ख़ाक हो जाता है।
कोई कहा किसी ने सुन लिया
कुछ अनकहा राज हो जाता है।।
(अप्रमेय)

Friday, July 31, 2015

वह ब्याहता

वह ब्याहता
जो ला सकी
उसके बाप की कुल जमा-पूंजी थी
पैसे से ही नहीं
इज्जत की भी पगड़ी
जगह-जगह
सेठ,सुनार,मित्रों
और गुरुवों के चौखट पर
उसके बाप ने उतारी थी,
वह ब्याहता अपने होने का अर्थ
न ही माँ के आँचल में ढूंढ सकी
न ही बाप के कंधे पर,
धरती उसके विराम की नहीं
यात्रा की सड़क है
जिस पर ससुराल का रथ
दौड़ता है
कोई भी सवार हो सकता है
कोई सारथि  भी
वह पहियों  की कील  की तरह धुरी बन
काल को निहारती रहती है,
ब्याहता का
ससुराल और  मायका
गड़े बांस की तरह दो छोर हैं
जहाँ वह अपने होने को
अरगनी के मानिंद
बाँध देती है
 दोनों मुहाने कोई कपड़ा
गीला हो गन्दा हो
उसे अपने आँखों के गड़ही  में धोकर
टांगते हुए सुख देती है।
(अप्रमेय )

Wednesday, July 29, 2015

गरीब

गरीबों की झोंपड़ी
टट्टीयों से ढंकी जाती है
तुमने गुस्लखाने में
अपनी  विष्ठा के त्याग का
नाम 'टट्टी ' दिया,
कोई क्रान्ति इसके विरुद्ध
कभी छिड़ी; तुमने सुनी ?
ग़रीब बिना नुख़्ते के भी
गरीब लिखे जा सकते थें
लिखा नहीं गया,
जिन्होंने नुख़्ता नहीं लगाया
उन्हें शब्दों से गरीब समझा गया
शब्दों के दलालों को
आदि -अंत के बीच संबंधों से
क्या लेना -देना
वह तत्काल का मुँह देखते हैं
शब्दकोश की कचहरी में
जज के शब्द दुहराते हैं
इसी का पैसा पातें हैं
नई दुनिया में
किसी बड़े शहंशाह ने
गरीबों को मंत्र दिया है -
"गरीब पैदा होना गुनाह नहीं : गरीब होकर
मर जाना गुनाह है"
मैं चीख कर पूछता हूँ
अमीरों से
गुनाह क्या है ?
जरा इसको जोर से चिल्लाना।
(अप्रमेय)   

Wednesday, July 8, 2015

तुम

रेत पर बैठे पंछी
जैसे सागरों में डुबकी
लगा आतें हैं
वैसे न चाहते हुए भी
ताल-ताल घाट-घाट
तुम याद आते हो,
सालती है अंदर
बराबर ये बंजर भूमि
देखता हूँ कभी-कभी
कुछ फूल खिल आतें हैं,
राह कोई जब-जब न रहा
तुम तब-तब
खेत-खेत मेड़-मेड़
फुनग आते हो,
स्वांस-स्वांस जाती है आती है
कोई महक
ह्रदय के जंगल में
डाल-डाल तुम
लटक जाते हो

(अप्रमेय )

Monday, July 6, 2015

एक-क्षण, तत-क्षण

 बेला  गुलाब जूही चंपा चमेली
और भी जाने क्या-क्या
ये महज फूल नहीं
अस्तित्व प्रदत्त सनद हैं
तुम्हारे
कि तुम प्रेम कर सको ,
महज इनमे से गुलाब कभी
तय कर लें किसी सुबह
न खिलने का
तो सूर्य नहीं उगेगा पूरब से,
ये भरोसा नहीं दावा है
जिसे दुनिया का कोई ग्रन्थ, विज्ञान
झुठला नहीं सकेगा
मेरे रहने न रहने के बाद,
ये वचन सूर्य के लिए भी ढाल  बनेगा
और तुम सब के लिए
हौसले की उड़ान,
आजमाना  हो तो कभी आजमा लेना
सभी सांस भर न लेना एक-क्षण
मुरझा जाएंगे सभी फूल तत-क्षण
( अप्रमेय )

Tuesday, June 23, 2015

कृष्ण

कृष्ण
तुम द्रौपदी के ह्रदय में
सूर्य की तरह मत उगो
दुशासन की कंठ से
रुधिर की तरह बहो
कहानियाँ जिन्होंने लिख डालीं
बंधे-बंधे से शब्दों में
उनके हाथों में धनुष बन
जिंदगी के इस कर्ण मंच को बधो
आओ कृष्ण
श्रद्धावान आलसियों की श्रद्धा
और परंपरा से ऊबे नास्तिकों को
पार-अपार की फांसी से छुड़ाओ
जिंदगी को महकाओ
विवेक की पतवार थमाओ
( अप्रमेय )

Wednesday, June 10, 2015

कुछ फुटकर शेर 2

उदासी इस कदर कि दबाई न जाय                                                                                                
वो आएँ न आएँ उन्हें बताई न जाय ।।

बीते बीते बीत गई एक रात और
होते होते हो उठी एक सुबह और

(अप्रमेय)







कुछ फुटकर शेर

1-  सीयसतें मशगूल थी जब इल्म के कहकहों में 
      कोई भूखा रात आवाज़ दे दे कर सो गय ।।

2-   तमतमाते चहरे गर्म साँसे टपकते ख़ून आँखों से
       वह सहम गया देखो होठों से आवाज नहीं आती ।।     


3   कोई भी बात अब नई नहीं होती                 
     जिंदगी फिर बयां क्यों नहीं होती ।।
(अप्रमेय)










Sunday, May 31, 2015

पुनरावृत्ति

मोची की आँख
कभी डबडबाती नहीं
चमचमाती है
भिखारियों का कटोरा
खनकता नहीं टनटनाता है
किसी की जिंदगी में ऐसा
एक बार होता है
पर इतिहास में तो इसकी
पुनरावृत्ति होती है ।

 (अप्रमेय)














गौर से देखो

देखो इसे गौर से देखो
कोई ख़ून का कतरा
या कहीं पसीने की कोई बूंद भी
टपकी क्या ?
देखो और पहचानो 
यह कौन है
औरत है ?
माँ है ?
माशूका भी नही ?
देखो उसकी छाती
कोई मांस का गोला हिला क्या ?
देखो उन्हें भी गौर से देखो
कोई बच्चा ?
कोई बेटा ?
कोई शरारत उठी क्या ?
देखो शब्दों से अलग
किताबों से जुदा
आग को
जो कभी बुझ गयी थी
तुम्हारे अन्दर
वह जली क्या ?

समझो

समझो अभी कि ढल जाएगी रात
ये पर्दा हटाओ कि थम जाएगी बात
उनकी फ़िकरों पे इतना न फ़िक्रमंद होना
आओ तराशे खामोशी से इक राज
कोई किसी पर इतना ज़ोर डाल नहीं सकता कि
हाथ थामो मेरा फिर देखो हर तरफ कैसे फैलेगी आग।

दाढ़ी

उसकी दाढ़ी 
धीरे-धीरे बढ़ी होगी
साल दर साल,
जोड़ते हुए ,सपनों के लिए नहीं
जुगाड़ करते दो पैसे के लिए
ताकि उनसे
चूल्हे में सुलगती रहे आग,
उसकी दाढ़ी यों ही नहीं बढ़ गई होगी
धीरे-धीरे बढ़ी होगी
चिल्लाने के बरक्स
मौन के साथ खड़े होने में
अपने बच्चे को अस्पताल
दाखिल न करा पाने के कारण
अपने हाथो में उसकी दर्द की कराह को
मौत तक जोड़ते हुए
उसकी दाढ़ी
उसके लिए उसके चेहरे की नकाब है
जिसे वह आईने में नहीं देखना चाहता,
आज मंदिर के सामने
गुमटी के अंदर
उसकी आँखें
चाय पकाती हैं बिलकुल कड़क
देखो उसकी दाढ़ी है आज
द्रष्टा...
जो कि उसकी चेतना के साथ
हमेशा बढ़ती और गहराती रही
काली से सफेद होती रही

जो जान सका;

मैं जो जान सका
वह यही कि यहां
समय के पन्नों पर
कुछ-अकुछ के बीच
बीननी है अपने काव्य की कहानी,
बिना अभ्यास के
बीचो-बीच
किन्हीं अन्तरालों में
पूरे जोर से
निभाना है अपना किरदार,
अपने ही निर्देशन में
पूरे का पूरा चाक-चौबंद
यहीं इसी जगह
सुबह उठते हुए
सूरज की रोशनी में
चांद-तारों की झोली में
छुपा देने हैं अपने सवाल,
होगी, फिर वही होती हुई रात
शताब्दियों के साथ
जवाबों की घंटी लिए,
तुम्हें ढूंढना है अपना सवाल
जिसके गीत गाये जा सकें
गुनगुनाएं जा सकें 

भीतर

भीतर अर्थ नहीं
शब्द नहीं 
ऐसा कुछ नहीं
जो तुम्हारे लिए सार्थक हो,
तुमने जब-जब
जानना चाहा उसे आदतन
आँखों के प्रकाश की लाठी लिए
सिर्फ पगडंडी तलाशने का काम किया,
भीतर घर नहीं
चूल्हा नहीं
कोई ऐसा कमरा भी नहीं
जहां बिस्तर के सिरहाने
तुम दबा सको अपनी उदासी,
मैंने भीतर को सुना है
कभी-कभी
स्मृतयों के सहारे
उसके रूप को ध्वनित होते हुए
किसी को पुकारने के बाद
कमरे में कुर्सी पर बैठे
उधर बाहर मैदानों में
खेलते बच्चों की गूँज के पास ,
शताब्दियों की दौड़ में
किसी बूढ़े को अपनी चारपाई पर
बस एक फर्लांग की दुरी पर पहुँचने के पास
लगातार चल रही किन्ही सिसकियों को
धीरे-धीरे हवा की नमी में
घुलते रहने के साथ,
भीतर कुछ होता नहीं
यह सिर्फ कवियों, मनीषियों को
बहलाने जैसा अल्लाद्दीन का चिराग है
जिसकी बाती
जिसका तेल
और उसको दहकाने वाली चिंगारी
बाहर हाँ बाहर
तुम सब के पास है 

हम हैं ही विराट

हम हैं ही विराट :
कविता जन्म ही नहीं लेती
विराट के साथ
ऐसा मुझे उसके बरक्स खड़े होकर 
कुछ कहने के वक़्त समझ आया,
समझ आया ड्राइंगरूम का फूल
फूल नहीं प्लास्टिक से भी बत्तर
फूल की आकृति लिए भ्रम,
समझ आया लहराता शब्द
खड़ा होता हुआ शब्द
समझ आई परिभाषा
हमसे जो निर्मित हुई भाषा...
भाषा नहीं शब्द....
शब्द नहीं ध्वनि....
ध्वनि भी नहीं.....
तुम्हारे अहिर्निश झरते
संवाद को दरकिनार करती
अतृप्त अभिलाषा,
हमने सुना नहीं
सुनाया
देखा नहीं
दिखाया
समझा भी नहीं
समझाया,
हमने रचे इतिहास
जहाँ हम खड़े हैं वहीं से
पीछे और पीछे
अपनी उपस्थिति का निर्जीव बीज डाले
हमने रची आकांक्षाएँ
जहाँ हम खड़े हैं वहीं से
आगे और आगे
तकनीक से अंकुरण का खयाल भरते,
हमारा होना तो तय था, तय है
तय रहेगा भी
पर विश्वास से नहीं
विज्ञान से नहीं
और ज्ञान से भी नहीं,
कुछ होने के लिए नहीं
नहीं ; कुछ नहीं होने के लिए भी
हम हैं, बस अपने आप
निपट अपने लिए विराट के साथ
नहीं ...
हम हैं ही विराट ।

आत्मा

जहाँ-जहाँ 
मेरी कविताओं ने 
लय पकड़ा है 
समझना वहीं-वहीं
मैंने अपनी आत्मा का 
गला घोटा है  ।

( धूमिल की तर्ज पर )

अतिथि

अतिथि तुम कब आए
ध्वनि में शब्द का रूप भरते
ताप से आग होते 
धीरे-धीरे वैश्वानर फिर दावाग्नि 
बड़वाग्नि होते 
सिगड़ी-चूल्हे में गुनगुनाए
अतिथि तुम कब आए
सर सर सर पत्तों को नचाए
पंछी के पंख को भर-भर लुटाए
गगन चुम्बन का पाठ सुनाए
अतिथि तुम कब आए
माटी की किताब पर
फूल घाँस और जाने क्या-क्या
कविता लिख लाए...
अतिथि
तुम्हारे आँख फिर
क्यों भर आए
बताओ
कहाँ-कहाँ मंडराए
घुमड़ाए
झर झर झर
झर आए
बताओ अतिथि
तुम क्यों नहीं फिर आए

वसंत

कहाँ आता है वसंत
वह तो समय लाता है
अँधेरा किवाड़ को बंद कर
दुःख लाता है,
हम अपने-अपने दरबों में बंद
जिंदगी तलाशतें हैं
कहाँ आती है जिंदगी
यह कौन समझ पाता है ?

कथा

कथा जब-जब लिखी जाएगी
किसी की अपूर्ण व्यथा कही जाएगी
झूठ हैं शब्द 
मानोगे इसे एक दिन 
भरेगी आँख जब आँसू से
किसी शब्द को भीगा न सकोगे तुम,
हम रहे न रहे
जिंदगी को कभी
पन्नों पर उतार न सकोगे तुम ।

पहले-पहल

पहले-पहल
अनायास ही मिलता है सब कुछ
जैसे हींग 
जायफल 
लौंग
आलू
और स्वाद...
जैसे आकाश
हवा,धूप, पानी का वरदान ...
जैसे चमड़ा
देखती आँख
साथ चलती किसी देह का साथ
फिर अकस्मात प्यार...
सदियाँ बहुत बाद में
ले आ पातीं हैं
बहीखाते में उनका हिसाब
धीरे-धीरे
शब्द की तिजोरियाँ
ज़ब्त कर देती हैं
उनकी कीमत
उँगलियों के रोज़नामचे का
मंडी-बाजार में नही देता कोई जवाब
फिर पीढ़ियाँ
चुकती जाती हैं बेहिसाब
कोई है...? मैं पूछता हूँ चीख कर
बार
बार
कोई नहीं देखता अनायास
बचे हुए यह लोग
हमेशा बचे रह जाना चाहते हैं
किसी नायाब मसीहा की तलाश में
जो उनको
गणित समझाए गा
कविता के पद सुनाए गा
व्याकरण से
विस्मृत वैतरणी को
पार करवाए गा

मंजिल

कोई शिकवा न कोई गिला 
कुछ भी न मिला
कोई वफा न कोई बेवफा
यादों में रहा 
हम तो निकले ही नहीं
जिंदगी के सफर में कभी
न कोई राह न मंजिल
न कोई खुदा ही मिला 

इतिहास

देखो 
शिल्पियों का हुनर
अब शिलाओं में 
नहीं उभारतें
देवी-देवताओं का रूप,
उन्हें 'वाह' नहीं
'आह' की ज्यादे ख़बर है
इसलिए
लोढ़ो और सिल बट्टों में
लिखतें हैं वह
करीने से
हुनर और गरीबी का
इतिहास
(अप्रमेय)

कविता

तुम इसे समझते रहे कविता
और मैं खोजता रहा भाषा
कभी दो दिन
कभी चार 
और कभी महीनों बाद
लिखता रहा चूकते-चुकते
कलम से निकलती स्याही की तरह
धीरे-धीरे भाषा ,
हमनें तो खोजी है
सिर्फ ध्वनि में भाषा
या कभी-कभी
आँखों में
पर
जिंदगी की भाषा
खेतों में पकते बालियों के लिए
चूल्हा हो जाती है
पकते आम के लिए चीनी
शरीर के लिए गर्मी
और सड़ते उच्छिष्ट के लिए
अदृश्य टेक्नोलॉजी,
तुम पढ़ो इसकी भाषा
इसका बजता छंद
मात्राओं में दिन-रात की तरह
पूरी आवृत्ति में
ऋतु-मास की तरह
जीते, दौड़ते, सुस्ताते,
उड़ते, बतियाते
पशु-पक्षियों मनुष्यों में
राग की तरह,
और मृत्यु से गूँजते
स्वयंभू
तानपुरे से निकलते
गांधार की तरह ।
(अप्रमेय)

Thursday, February 19, 2015

ऐसा सोचना

कभी-कभी
मैं हाथ डालता हूँ जब
अपने झोले में
तो उसका कोना
मुझे पकड़ा जाता है
एक-सकून, एक-ठंडक
जहां मुझे घर बसाने की इच्छा होती है
जिंदगी का घर
इतना छोटा हो सकता है क्या ?
जहां रहा जा सके
खाना पकाया जा सके
या फिर अपनी इच्छाओं का
सामान रखा जा सके
कभी-कभी
ऐसा सोचना
सिर्फ सोचना नहीं
जिंदगी का पूरा सवाल
बन जाता है

_ अप्रमेय _

देखो इसे गौर से देखो

देखो इसे गौर से देखो
कोई ख़ून का कतरा
या कहीं पसीने की कोई बूंद भी
टपकी क्या ?
देखो और पहचानो
यह कौन है
औरत है ?
माँ है ?
माशूका भी नही ?
देखो उसकी छाती
कोई मांस का गोला हिला क्या ?
देखो उन्हें भी गौर से देखो
कोई बच्चा ?
कोई बेटा ?
कोई शरारत उठी क्या ?
देखो शब्दों से अलग
किताबों से जुदा
आग को
जो कभी बुझ गयी थी
तुम्हारे अन्दर
वह जली क्या ?(अप्रमेय )
समझो अभी कि ढल जाएगी रात
ये पर्दा हटाओ कि थम जाएगी बात
उनकी फ़िकरों पे इतना न फ़िक्रमंद होना
आओ तलाशे कि असल है क्या बात, 
कोई किसी पर इतना ज़ोर डाल नहीं सकता कि
हाथ थामो मेरा फिर देखो हर तरफ कैसे फैलेगी आग।

अप्रमेय

दाढ़ी

उसकी दाढ़ी
धीरे-धीरे बढ़ी होगी
साल दर साल,
जोड़ते हुए ,सपनों के लिए नहीं
जुगाड़ करते दो पैसे के लिए
ताकि उनसे
चूल्हे में सुलगती रहे आग,
उसकी दाढ़ी यों ही नहीं बढ़ गई होगी
धीरे-धीरे बढ़ी होगी
चिल्लाने के बरक्स
मौन के साथ खड़े होने में
अपने बच्चे को अस्पताल
दाखिल न करा पाने के कारण
अपने हाथो में उसकी दर्द की कराह को
मौत तक जोड़ते हुए
उसकी दाढ़ी
उसके लिए उसके चेहरे की नकाब है
जिसे वह आईने में नहीं देखना चाहता,
आज मंदिर के सामने
गुमटी के अंदर
उसकी आँखें
चाय पकाती हैं बिलकुल कड़क
देखो उसकी दाढ़ी है आज
द्रष्टा...
जो कि उसकी चेतना के साथ
हमेशा बढ़ती और गहराती रही
काली से सफेद होती रही
(अप्रमेय)

जो जान सका


मैं जो जान सका
वह यही कि यहां
समय के पन्नों पर
कुछ-अकुछ के बीच
बीननी है अपने काव्य की कहानी,
बिना अभ्यास के
बीचो-बीच
किन्हीं अन्तरालों में
पूरे जोर से
निभाना है अपना किरदार,
अपने ही निर्देशन में
पूरे का पूरा चाक-चौबंद
यहीं इसी जगह
सुबह उठते हुए
सूरज की रोशनी में
चांद-तारों की झोली में
छुपा देने हैं अपने सवाल,
होगी, फिर वही होती हुई रात
शताब्दियों के साथ
जवाबों की घंटी लिए,
तुम्हें ढूंढना है अपना सवाल
जिसके गीत गाये जा सकें
गुनगुनाएं जा सकें
(अप्रमेय )

Wednesday, October 8, 2014

आदमी हिसाबी है

वे रास्ते तलाशतें हैं सदियों से 
वे भटक-भटक गएँ सदियों से 
सदियाँ सदियों का हिसाब नहीं रखती 
हम रखतें हैं उनका 
जो कभी हमारा नहीं रखतें 
आदमी-आदमी नहीं 
हिसाबी है 
पल-पल में 
सोते-जागते 
झगड़ते -प्रेम करते 
आदमी क्या हुआ 
सदियों से.… 
हिसाबी बना 
हिसाब से कुआँ -तालाब गढ़ते 
हिसाब से 
खर- पतवार बीनते 
हिसाब से 
समय-समय पर 
आदमी के हिसाब के परिभाषा को 
हिसाब से बगाड़ते 
मैं देखता हूँ 
दुनियाँ बची हुई है 
अब-तक 
क्यों ? पूछता हूँ 
और हिसाब से इसे 
ख़त्म होते देख 
बेचैन हो जाता हूँ 
(अप्रमेय 

Sunday, September 14, 2014

वसन्त

वसन्त:
तुम्हारे गमले में भी तो
उतरा होगा वसन्त
अपनों से कटा हुआ
चम्मच भर वसन्त
तुम्हे कितनी ख़ुशबू देता होगा ?
मैं तो देख न सका
उसे उतरते-पसरते
जंगलों- पहाड़ों और
मरघटों में…
पर इस उलझन में बुन गया
एक पद--- वसन्त 
यह पद एक पद नहीं
वसन्त है 'वसन्त'
तुम उतरो वसन्त 
उनके लिए भी
जो सिर्फ़ चाहते हैं
छटाक-भर वसन्त,
और उनके लिए भी पूरा का पूरा
लबालब गड़ही-पोखरा, तालाब
भर कर
जो सुबह- साँझ 
साझे की आस लिए
तुम्हारे लिए भर-पेट  गीत  गाते हैं

(अप्रमेय )

Tuesday, September 9, 2014

रात हुई

अब चलो सो जाओ कि रात हुई
क्यों न रूबरू हो जाओ कि रात हुई
इतनी शिद्दतों के बाद मिले भी कि रात हुई
रात हुई की सी मुलाक़ात कि फिर रात हुई

(अप्रमेय )

उदासी सिर्फ एक कहानी है

यह उदासी लपक कर कूद पड़ी
कनाट प्लेस में फुटपाथ के किनारे
उड़ी-पड़ी कथरी के उपर,
यह उदासी हाथ नहीं मिलाती
गोद में चढ़ बैठती है
पत्थरों को फोड़ती
उस औरत के आँचल को पकड़ कर,
ये उदासी कभी पूरी टूटती नहीं
न गिर कर पूरी हो जाती है बेहोश
तुम नाप सकते हो
इंच टेप से कभी-कभी उदासी
झरते डाल से उन पत्तों को अलग होने के ठीक बाद
और गिरते भूमि पर उसके न सटने के जड़ो-जहद के ठीक पहले
उदासी आँखों में पानी नहीं
उसकी आँखों में डबडबाने के पहले
और गिर जाने के बाद की
कहानी है |

(अप्रमेय)

पूरा सवाल

कभी-कभी
मैं हाथ डालता हूँ जब
अपने झोले में
तो उसका कोना
मुझे पकड़ा जाता है
एक-सकून, एक-ठंडक
जहां मुझे घर बसाने की इच्छा होती है
जिंदगी का घर
इतना छोटा हो सकता है क्या ?
जहां रहा जा सके
खाना पकाया जा सके
या फिर अपनी इच्छाओं का
सामान रखा जा सके
कभी-कभी
ऐसा  सोचना
सिर्फ सोचना नहीं
जिंदगी का पूरा सवाल
बन जाता है

_ अप्रमेय _

यह देश

इस देश में पिता चुप हैं
और माताएं अगोर रही हैं
अपने-अपने पतियों का अनुपस्थित आदेश
भगवान् तो कभी भी यहाँ नहीं आया
हिन्दुओं के पास
मुसलमानों और इसाईयों के पास
हाँ उसका झंडा था उनके पास
जो टेक्नोलौजी से भी सूक्ष्म
एक ऐसा बटन था
जिसका होना उनके लिए
सम्मान के साथ-साथ
भोजन का जुगाड़ था
मुझे परिस्थिति को
अब भगवान् नहीं कहना
क्यों कि उसने कभी
सरकारी नौकरी नहीं दी किसीको
इस देश में
राजस्थान के राजपूत
अब कहते हैं
चुपके से
हम उस जाति के नहीं
सिर्फ कागजों में
चस्पा हैं
सरकारी दफ्तरों में
फाइलों के बीच
दबे हुए,
बाहर कपड़ा पहने हुए
जो हम करते हैं नौकरी
सिर्फ उसके लिए
हमने बदला है अपना रूप,
हमारा खून
राजपूत का ही खून रहेगा
चाहे किसी भी
सदी के लैब में इसे टेस्ट करा लेना,
मुझे पंडितों से नहीं
और न ही राजपूतों से
पूछना है यह सवाल
मैं सुनना चाहता हूँ उनसे
जिनके लिए यह"शब्द " बना
और सरकारी नौकरी दिलाने का गुलेल बना
कि इस शब्द का प्रतिबिम्ब तुम्हे दिखा क्या
औरत होने के आईने में
माँ होने के आईने में
पिता होने के आईने में
या फिर बेटा, बेटी होने के आईने में
सब कुछ होने के सन्दर्भ में
तुम अपने को सभ्यता के किस पार
देखना चाहोगे ?

(अप्रमेय )

पेड़

पेड़ तुम पेड़ रहोगे कबतक ?
आदमी के शब्दकोष से
कभी कटते कभी झरते-फ़ुनगते
तुम्हारा नाम
समय के पन्ने में
अर्थ बदलता रहता है ।
चिड़ियों के लिए तुम घर हो
और बहती हवा में
उससे इठलाती  मदमस्त झूमती प्रेमिका
खेतो के लिए तुम परदेश गए पिता हो
जो बादलों को अपनी हरियाली
बेचकर पानी का जुगाड़ करता है ।
पेड़ आदमी की समझ में
तुम सिर्फ पेड़ हो
कभी-कभी एक झोले की तरह
जिसमे वह अपने वीश्वास को 
प्रमाणित करता है
एक- एक मुहावरे
निकालते हुए ।
पेड़ तुम पेड़ न रहो
तभी आदमी , आदमी नही रहेगा ।
सभ्यता को अभी ख़ारिज होना है
आदमी और आदमियत
अभी गाली नहीं समझे जा रहे हैं
यह तो सिर्फ चल रही
न्यायलय की एक बहस है
जिसका फैसला होना अभी बाकी है
पेड़ मुझे फैसलों और कानून की फिक्र नहीं
तुम्हारी ज्यादे है
तुमने जो उगाई थी  कल
मेरे घर के बगल में वह गुलाब सी कविता
वह आज फिर सुना रही है
वही गुलाबी कविता

(अप्रमेय )

Tuesday, July 15, 2014

दो रुपए का नोट :


बीसवी शताब्दी में
दो रुपए के नोट नदारद हैं
घर से ,बाज़ार से
कहीं कोने में दबे
पूजा की किताबों से,
मैंने पूछा और खोजा
बच्चों की गुल्लकों में
दो रुपए का नोट
उन्होंने साफ़ इनकार किया
और औचक होकर
मुझे असभ्यता के
भीड़ में धकेल देना चाहा,
मैंने भिकारियों के
कटोरे में देखा
पूछ न सका
तमाम सिक्कों के बीच
कोई नोट न होने का कारण,
बीसवी शताब्दी के लिए
दो रुपए के नोट की स्वायतता ठीक नहीं
बीसवी शताब्दी का दर्शन में
या तो अद्वैतवाद है या फिर बहुवाद
द्वैतवाद का कोई अर्थ
कभी रहा करता होगा
भारत की चिंतनशील अवस्था में |

(अप्रमेय )

Friday, July 4, 2014

कैसे न हुआ जाए हैरान

कैसे न हुआ जाए हैरान
वह नहीं पिघलते
और झर जाते हैं झरने
पहाड़ो से नहीं
उसकी आँखों में आ कर,
तुम पोछते नहीं आँसू
और रेगिस्तान
चिपक कर गालों के पास
मेड़ की शक्ल में ढँक जाते हैं कोई राज,
कैसे न हुआ जाए हैरान
वह किनारे हो कर निकल जाते हैं
और धरती के गड्ढे
जमीन पर नहीं
उसकी शक्ल में दे जाते हैं
खाई जैसे निशान,
तुमको दिखती नहीं
पतली होती जाती चमड़ियों पर
कुछ उभरती,दौड़ती तस्वीर
वह केवल शिराएँ नहीं
जीवित शब्द हैं जो रूप के
साथ बह आए हैं नदियों से
शरीर में बसने के लिए |


( अप्रमेय )

Thursday, July 3, 2014

निपट आदमी के लिए

फूल केवल दिखते ही नहीं
वह रंग जाते हैं आप की आँख
स्त्री सिर्फ दिखती ही नहीं
वह दफ्न कर जाती है
तुम्हारे ह्रदय मेंकोई राज
जो नहीं जानते
दुनिया को देखना
वे ही सिर्फ लिखते हैं कविता
गाते हैं गीत या फिर
जिन्हें अपने अन्दर या फिर बाहर
दिखती है कोई फव्वारे की सी तस्वीर
उन्होंने
जो दस्तावेज तैयार किया
वह बंदूख और तलवार
से भी ज्यादे घातक हुए,
समझो मेरे निपट-आदमी !
निपट आदमी के लिए
 
( अप्रमेय )

Saturday, June 28, 2014

वह जब आए...

काश मेरी समझ की नासमझी और बढ़ जाए 
तेरे यकीन पर एतराज के बादल भी छा जाए,
फिर जो कड़केगी बिजली उसको देखेंगे 
फिर जो उतरेगी बारिश उसको समझेंगे,
जो कुछ भी हो, मेरी समझ-नसमझ से न आए 
वह जब आए...आए और.... छा जाए....

(अप्रमेय)

Tuesday, June 24, 2014

व्यवस्था

ये वह जंजीर है
जिसे व्यवस्था ने बनाया है
दरिद्रता और ऐश्वर्य
के सामान से,
तुमने देखा नहीं ?
यह तुम्हारा खाली बक्सा भी बाँधती है
और उनके तिजोरी को भी
रखती है सुरक्षित,
तुम...तुम रह सको
और वह...वह
इसलिए
प्रार्थनाएँ और कानून
सजग हैं,
दोनों ही आँख बंद कर के
स्वीकार करते हैं
जिसमे 'निर्णय' के लटके ताले को
खोलती है 

एक अदृश्य
चमत्कारिक चाबी। 
(अप्रमेय )

Friday, June 20, 2014

वह



वह मुझे
कहीं भी मिल जाता है
अक्सर तिराहों पर
किसी वीरान घर के बरामदे में
खड़ा-झाँकता,
घूमते साइकल के पहियों
में बिना घिसे चमचमाता
या
फड़फड़ाता सिनेमा हॉल के उकचे
किसी बैनर के ऊपर-किनारे
वह मुझे
कही भी मिल जाता है
पसरा---शब्दों की नज़र में
अटका---गीत की लय में
या फिर सिकुड़ता...
जिंदगी के सत्य में
हैंडपंप के पास चबूतरे पर
पड़ा हुआ
संडास के छिद्र की ढलान से  
बच-कर दृष्य बनाते
जिंदगी से दो-चार करते हुए |
( अप्रमेय )
     

Friday, June 13, 2014

इस इंतज़ार को

मैं कोई शब्द 
ऐसा नहीं लिख देना चाहता 
जो इस सन्नाटे को तोड़े ,
नहीं ! प्रेम नहीं इससे 
यह तो सिर्फ इस सन्नाटे को 
और गहराने का इंतज़ार है ,
कभी मैं अगर इसमें 
कोई सुन सका शब्द 
तो उसकी ध्वनि कैसी होगी ?
कभी कोई अगर
देख सका दृष्य 
तो उसका रूप कैसा होगा ?
शब्द से परे नहीं 
उस गूँज के अंदर 
रूप से पार नहीं 
उस दृष्य के भीतर 
होने की प्रक्रिया में 
इंतज़ार के रूपांतरण को 
अपने अंदर बुनना चाहता हूँ 
हाँ मैं इस इंतज़ार को 
और गहरा देना चाहता हूँ। 

(अप्रमेय )